इक नगर भ्रमण पर निकला मैं
प्रात काल का था वह समय ।
कोहरे की चादर पर थी
रवि किरणे बिखरी बिखरी ।
हवा में थोड़ी मादकता थी
मन में मेरे साधकता थी ।
चहुँदिश फूल खिले रंगीले
श्वेत स्वर्णित और सुनहले ।
एक सुन्दर छबि दिखी मुझको
न रोक सका फिर मै खुद को ।
उसके वर्णन को आतुर था
हाँ पर मैं एक आगंतुक था ।
नीले वस्त्रों में थी सुसज्जित
लगती थी वह पुलकित पुलकित ।
आँखों में सागर पला हुआ था
मन उसका कुछ खिला हुआ था ।
जब उसके मुखमंडल को देखा
न तनिक कहीं दुःख की रेखा ।
मुख मंडल पर इक कांति दिखी
रवि किरणों सी बिखरी बिखरी ।
इक टक मैं उसको निहार रहा
मन पर मेरे एक प्रहार रहा ।
जब तक मैं छबि ताक रहा
नजरों से तब तक पाक रहा ।
नजरों से मुझको कुछ बता रही
क्या मन की उसके व्यथा रही ।
केशों में फंसी हुई थी लताएं
हो रहीं प्रतीत काली सी घटायें ।
मुखमंडल अति मनमोहक था
पहले न कभी यह देखा था ।
स्थितियाँ उसके प्रतिकूल रही
नयनों से वह यह क़ुबूल रही ।
नजरों से जब तक पाक रहा
एक टक मैं उसको ताक रहा ।
नजरों से जब मैं हार गया
सुंदरता पर उसके वार गया ।
यह नहीं उचित मेरे लिए
वह नहीं रचित मेरे लिए ।
झट मैंने नजरों को मोड़ा
उसको स्मृतियों में छोड़ा ।