Saturday, May 22, 2021

एक कदम

पिछले कुछ महीनों में एक बात तो समझ में आ गयी कि इस दुनिया में कुछ भी स्थायी नहीं है। और स्थायित्व की कल्पना करना, यथार्थ से दूर भागने जैसा है। आज जबकि दुनिया एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहां आदमी का बचे रहना ही सबसे बड़ी उपलब्धि है, ऐसे में हम सबसे बड़े हैं, हमें कुछ नहीं हो सकता, हम आर्थिक रूप से बहुत मजबूत हैं आदि आदि सोचना भी हमारी नासमझी का सटीक उदाहरण है।

दुनिया प्रेम से चलती है। इसलिए दुनिया में प्रेम होना बहुत जरूरी है। इंसान होने के नाते हमारा सबसे पहला और बड़ा धर्म यही है कि हम प्रेम करें। प्रेम इंसानों से, जगहों से, पेड़ों से, नदियों से, पहाड़ों से और हर उस चीज से जो इस दुनिया में उपस्थित है।

प्रेम के बिना जीवन की कल्पना करना बेकार है। एक बार के लिए अगर सोचा भी जाए तो कल्पना कीजिए कि हम एक ऐसी दुनिया में हैं जहां घृणा का बोलबाला हो, जहां जानबूझकर एक दूसरे को गिराने की जद्दोजहद चल रही हो, जहां एक रोते हुए आदमी से कोई उसका कारण न पूछ रहा हो, जहां अनायास ही किसी को देखकर कोई मुस्कुरा न रहा हो, जहां सब अपने अपने स्वार्थ सिद्धि में लगे हों, जहां अंधाधुंध पेड़ काटे जा रहे हों, जहां नदियों को आंख बंद करके गंदा किया जा रहा हो, जहां कोई किसी की खोज खबर न ले रहा हो....... ऐसे दुनिया में रहना कितना मुश्किल होगा।

अरे...... हम ऐसी ही किसी दुनिया में अभी भी रह रहे हैं ना? अगर आपके मन में इस सवाल का जवाब हां है तो इस दुनिया को बेकार बनाने में आपका भी योगदान है।

ऐसा नहीं है कि हम इस दुनिया को खूबसूरत नहीं बना सकते, ऐसा भी नहीं है कि हम प्रेम नहीं कर सकते.... जरूरत है तो उठकर खड़े होने की और बस एक सिर्फ एक कदम चलने की। एक कदम चल देने भर से, इस दुनिया की सभी दूरियों को ख़तम किया जा सकता है। 

मुझे उम्मीद है, आप एक कदम जरूर चलेंगे। एक कदम...... बस एक।

Sunday, May 16, 2021

एक छोटी सी चिट्ठी


एक उम्र बीत गयी। कोई नई चिट्ठी नहीं आयी। आखिरी बार खत कब आया था, याद नहीं। शायद लोगों के पास अब वक्त नहीं, जो भी हो लोग अब किसी को चिट्ठी नहीं लिखते।

मुझे नहीं पता कि दुनिया इतना तेज़ी से कैसे और क्यों बदल गयी। लेकिन दुनिया के इतनी तेज़ी से बदलने में हमसे बहुत कुछ छूट गया। यादें कुछ देर साथ चली, फिर धीरे धीरे उनपर भी धूल जमने लगी। अब पुरानी यादें भी ज़हन में कहीं दफ़न हैं। उनकी आवाज़ भी अब हम तक नहीं आती। 

आख़िरी बार आंधी आने पर हम बाग की तरफ कब भागे थे? आख़िरी बार नानी के घर जाते हुए गांव से पहले वाले पेड़ को देखकर कब खुश हुए थे? आख़िरी बार कब मां की गोद में सर रखकर सोए थे? कब आख़िरी बार बाबूजी से बाज़ार जाने की जिद की थी? 

ऐसा नहीं है कि यह सब बचपन में की जाने वाली चीजें हैं, ऐसा भी नहीं है कि अब हम यह नहीं कर सकते, बात सिर्फ इतनी है कि हमने बदली हुई दुनिया को अपनी असली मानकर अपनी असली दुनिया को लगभग ख़तम कर दिया। 

हमें यह जरूर याद होगा कि काम के दवाब के चलते हमने आख़िरी कौन सी चीज तोड़ी थी? यह भी याद होगा कि आखिरी बार किस पर और क्यों चिल्लाए होंगे? यह भी याद होगा कि पढ़ाई में आख़िरी बार निराशाजनक परिणाम आने पर हमने किसे किसे दोष दिया होगा? 

असल में हम इंसान अपनी वास्तविकता को छोड़कर बाकी सब कुछ कर लेते हैं। हम खुशियों में नहीं नाचते, रोने पर किसी को गले नहीं लगाते, जीतने पर नहीं उछलते, लेकिन छोटी सी हार पर उदास जरूर हो जाते हैं। दरअसल हम यह भूल जाते हैं कि हमारी जिंदगी परिस्थितियों से नहीं बल्कि हौसलों से, प्यार से और अपनेपन से चलती है। 

अगर हम खुशियों में नाच पाएं, रोने पर किसी को गले लगा पाएं और जीतने पर उछल पाएं तो यकीन मानिए यह दुनिया हमारी सोच से ज्यादा खूबसूरत है। 


(पी.एस: मुझे चिट्ठियां बहुत पसंद हैं। लेकिन मेरे पास लिखने वाले लोग नहीं हैं। उम्मीद है आपको भी चिट्ठियां पसंद होंगी, इसलिए आपके नाम मेरी यह एक छोटी सी चिट्ठी)

एक कदम

पिछले कुछ महीनों में एक बात तो समझ में आ गयी कि इस दुनिया में कुछ भी स्थायी नहीं है। और स्थायित्व की कल्पना करना, यथार्थ से दूर भागने जैसा ह...