Saturday, October 28, 2017

दो राहें थी इक घर को इक सपनों की ओर चली

अंधियारे को मिटते देखा था बस एक किरण सूरज की से
साख बदलते देखा था क्षण भर में मन की गर्मी से
चिड़ियों की गुंजन मद्धम थी कुछ सावन की हरियाली थी
आजीवन ना मिटने वाली एक साख गजब बना ली थी
क्षणभर में बाजी यूं पलटी किस्मत मुझसे मुंह मोड़ चली
दो राहे थी इक घर को इक सपनों की ओर चली ।

था कठिन समय वह निर्णय का सब कुछ उस पर था टिका हुआ
उस ईश्वर से आस उसी के आगे सिर था झुका हुआ
क्षण भर को राह वही देखा जिस पर से मैं हो आया था
शून्य से लेकर शिखर आज मैंने ख़ुद को पंहुचाया था
बचपन को एक बार सोचा स्मृति मुझको झगझोर चली
दो राहे थी इक घर को इक सपनों की ओर चली ।

बचपन में जो भी सोचा था वह आज पूर्ण हो आया था
सपनों वाली राह पे अपनी आगे ख़ूब निकल आया था
न हो विस्मृत कोई, न तप , न प्रयास किसी का
धन्य है जीवन यह जिससे , यह जीवन है मात्र उसी का
मां की ममता करके मुझको भाव विभोर चली
दो राहे थी इक घर को इक सपनों की ओर चली ।

सबकी उम्मीदें पूर्ण हुई सपने सबके साकार हुए
ईश्वर के मुझपर अविस्मरणीय उपकार हुए
सबको खुश करने का सपना मेरा बचपन से था
कुछ करने का एक जुनून सर पर मेरे छुटपन से था
सबकी ममता सपनों को करके मेरे कमज़ोर चली
दो राहे थी इक घर को इक सपनों की ओर चली ।

लौटा आज स्वयं मैं फिर बचपन की हरियाली में
चेहरे को छूती थीं बूंदे काली घटा निराली में
इक लंबी अवधि बीत गयी जब माँ ने ख़ूब खिलाया था
आँचल से ढककर लोरी गाकर गोदी में हमे सुलाया था
मां की लोरी फिर से कानों में करके शोर चली
दो राहे थी इक घर को इक सपनों की ओर चली ।

1 comment:

  1. Written in a nice form and a nice message as well....keep continue Abhishek ji

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