Wednesday, April 4, 2018

मैं तप कर फ़िर अंगार बनूं

मैं नहीं चाहता जग में फ़िर
कहीं अलंकित नाम रहे
शांत सरल मृदुभाओं से ही
जगत प्रकाशित काम रहे
हो स्वेत वस्त्र सा मन मेरा
मैं विधवा का श्रृंगार करूं
मन को मैं उन्मादित करके
मैं तप कर फ़िर अंगार बनूं ।

चंदन का पुष्प सुगंधित हो
तन मन जग को वह महकाये
हो वायु सुगंधित भी उससे
हर मन को फ़िर वह बहलाये
मन के मलीन हर भावों का
सकुशल मैं भंगार बनूं
जीवन को आत्मसमर्पित कर
मैं तप कर फ़िर अंगार बनूं ।

सकुशल नीरव रस का प्रवाह
सुखी सरिता के जीवन में
पतझड़ का मौसम ही ठहरे
मेरे मन के सूखे वन में
मैं मन के अपने भावों का
अभेदित कारागार बनूं
प्रेम सहित सरिता वन फैले
मैं तप कर फ़िर अंगार बनूं ।

जीवन में प्रेम नहीं जिनके
मन उनका भी अनुरागी है
हो प्रेम यज्ञ का अनुष्ठान
हर जन उसमें प्रतिभागी है
इस प्रेम यज्ञ के अनुष्ठान में
मैं उसका सभागार बनूं
प्रेम प्रेम को कर आलंगित
मैं तप कर फ़िर अंगार बनूं ।

4 comments:

  1. 🙏कविवर आप को प्रणाम🙏
    बहुत ही सुंदर रचना है,
    दिल खुश हो गया ।

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  2. बहुत बहुत आभार आपका सर ।

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  3. पढ़ पढ़ कर आपकी कविताएं
    में गजब लिखाई का गवाह बनूं
    आपके लेख से प्रेरित होकर
    मैं तप कर फिर अंगार बनूं।

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