Monday, February 26, 2018
एक दृश्य
Sunday, October 29, 2017
जिसके पीपल की छांव तले
उस चौबारे के सूनेपन में
जिसकी मिट्टी भाती थी
हमें ख़ूब अपने बचपन में
बहुत दूर का सफ़र हुआ यह
अब उस चौबारे को पाँव चले
तब ढेरों सपने पलते थे
जिसके पीपल की छांव तले ।
क्या पाया क्या खोया है
वही फ़सल है बस अपनी
जिसको हमने न बोया है
थक हार के बैठें है जब भी
मन उस बचपन के गाँव चले
तब ढेरों सपने पलते थे
जिसके पीपल की छांव तले ।
उस मिट्टी से ही फ़ैले हम
उस मिट्टी से ही साफ़ हुए
और उससे ही थे मैले हम
फ़िर से अब वह बारिश हो
जिसके पीपल की छांव तले ।
Saturday, October 28, 2017
दो राहें थी इक घर को इक सपनों की ओर चली
अंधियारे को मिटते देखा था बस एक किरण सूरज की से
साख बदलते देखा था क्षण भर में मन की गर्मी से
चिड़ियों की गुंजन मद्धम थी कुछ सावन की हरियाली थी
आजीवन ना मिटने वाली एक साख गजब बना ली थी
क्षणभर में बाजी यूं पलटी किस्मत मुझसे मुंह मोड़ चली
दो राहे थी इक घर को इक सपनों की ओर चली ।
था कठिन समय वह निर्णय का सब कुछ उस पर था टिका हुआ
उस ईश्वर से आस उसी के आगे सिर था झुका हुआ
क्षण भर को राह वही देखा जिस पर से मैं हो आया था
शून्य से लेकर शिखर आज मैंने ख़ुद को पंहुचाया था
बचपन को एक बार सोचा स्मृति मुझको झगझोर चली
दो राहे थी इक घर को इक सपनों की ओर चली ।
बचपन में जो भी सोचा था वह आज पूर्ण हो आया था
सपनों वाली राह पे अपनी आगे ख़ूब निकल आया था
न हो विस्मृत कोई, न तप , न प्रयास किसी का
धन्य है जीवन यह जिससे , यह जीवन है मात्र उसी का
मां की ममता करके मुझको भाव विभोर चली
दो राहे थी इक घर को इक सपनों की ओर चली ।
सबकी उम्मीदें पूर्ण हुई सपने सबके साकार हुए
ईश्वर के मुझपर अविस्मरणीय उपकार हुए
सबको खुश करने का सपना मेरा बचपन से था
कुछ करने का एक जुनून सर पर मेरे छुटपन से था
सबकी ममता सपनों को करके मेरे कमज़ोर चली
दो राहे थी इक घर को इक सपनों की ओर चली ।
लौटा आज स्वयं मैं फिर बचपन की हरियाली में
चेहरे को छूती थीं बूंदे काली घटा निराली में
इक लंबी अवधि बीत गयी जब माँ ने ख़ूब खिलाया था
आँचल से ढककर लोरी गाकर गोदी में हमे सुलाया था
मां की लोरी फिर से कानों में करके शोर चली
दो राहे थी इक घर को इक सपनों की ओर चली ।
Monday, October 23, 2017
चलो अब तुम रहने दो
Monday, September 25, 2017
मैंने तो सब बोल दिया है अब तुम भी कुछ बोलो तो
खुली किताब दिखाई मैंने
निज मन व्यथा बताकर फिर
आशा एक जताई मैंने
आशा में विश्वास भरो तुम
अपने मन को खोलो तो
मैंने तो सब बोल दिया है
अब तुम भी कुछ बोलो तो । 1
आंखों में आँसू देखें हैं
पानी में चिंगारी भी
ढहते किले दिनों में देखे
तम में एक तैयारी भी
अन्तर्मन की गहराई से
अपनी नब्ज़ टटोलो तो
मैंने तो सब बोल दिया है
अब तुम भी कुछ बोलो तो । 2
तनिक कहीं न धारा है
थककर जब भी रुक जाओगे
चारों ओर किनारा है
ताक पे रखके राज रियासत
सच्चे मन को तोलो तो
मैंने तो सब बोल दिया है
अब तुम भी कुछ बोलो तो । 3
Saturday, September 23, 2017
Light always try to restrict light itself
Suddenly i heard a stranger's sound
The stranger's voice was trembling
I am not sure but something was missing
I was trying to find that voice
Though it was dark but some noise
In dark i was standing all alone
Listening the trembling stranger's tune
I was unable to found any direction
But that is not my destination
The voice is only distracting me?
Or someone in danger I have to see
Suddenly I saw two rays of light They were travelling doing fight
Oh that sound was of the rays
They were restricting their own ways
On the other hand dark was very calm
Light always shows its palm
In the dark i saw a beautiful site
Though it was a dark night
Dark never oppose neither light not dark
But light always makes light shark.
Saturday, September 2, 2017
जीत कर या हार कर खुद का तू निर्माण कर ।
खुद को तू कुछ यूं बना दुनिया तेरी मिशाल दे
दुनिया में फैली गंदगी से खुद को तू निकाल ले
खुद बना आर्दश ढाँचा खुद को उसमे ढाल ले
हो कोई यदि सही उसका तू सम्मान कर
जीत कर या हार कर खुद का तू र्निमाण कर |
चुप न रह यदि हो गलत खुद गलत तो मौन हो ले
कर प्रतिज्ञा जीत की फिर इसे कौन तोड़े
न्याय का इक बांट ला खुद को उसमे तौल ले
हो जरा भी गलत तुझसे उसको तू स्वीकार कर
जीत कर या हार कर खुद का तू र्निमाण कर |
हो परिस्थिति प्रतिकूल पर न अपना धैर्य खोना
हो समस्या चाहे विकट उसमे न हताश होना
यदि कदम रूक जाए मन में आशा के तू बीज बोना
हर मुसीबत के लिए खुद को तू तैयार कर
जीत कर या हार कर खुद का तू र्निमाण कर |
खुद के बाद दृष्टि तू इक समाज पर भी लगा
एक आदर्श स्वरूप समाज को भी तू दिखा
जन जन की पीड़ा को अपनी पीड़ा तू बना
हर दबे कुचले जनो को फिर तू उर्जावान कर
एक कदम
पिछले कुछ महीनों में एक बात तो समझ में आ गयी कि इस दुनिया में कुछ भी स्थायी नहीं है। और स्थायित्व की कल्पना करना, यथार्थ से दूर भागने जैसा ह...

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शिखर बिंदु पर तब मैं था उत्तण्ड सूर्य सा दिखता था अस्त्र शस्त्र सब फ़ीके थे निर्भीक निडर हो लिखता था शासन सत्ता का जोर हुआ यह दे...
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हां कुछ लोगों का मैंने भी संसार उजड़ते देखा है हसीं ख़ुशी के आंगन का परिवार बिछड़ते देखा है इतनी शक्ति है मुझमें कि मैं उनका संसार ...